
मित्रो
सर्व प्रथम आप सभी को नव वर्ष २०११ की हार्दिक शुभकामनायें. इस नए वर्ष में हिंदी लेखन विश्व भर में और भी समृद्ध हो. और कभी हिंदी के किसी लेखक को नोबल पुरष्कार मिले, यही कामना है. साथ ही, भारत में करोड़ों हिंदी भाषी हीन भावना का त्याग करके हिंदी को शक्ति दें. इस वर्ष आप सभी का लेखन भी नई ऊचाइयां छुए, यही ईश्वर से प्रार्थना है. ये भी प्रार्थना है कि आप सब का स्नेह सतत मिलता रहे...
इस बार नव वर्ष के पहले अंक में एकबार फिर से कुछ गज़लें प्रस्तुत हैं.
१
जब मिलें ज़ख़्म तो भरने का सलीक़ा सीखे
आदमी ग़म से उबरने का सलीक़ा सीखे
हो के मायूस जो बैठा है कहो सूरज से
डूब कर फिर से उभरने का सलीक़ा सीखे
नाव टूटी है उमीदें हैं मगर मांझी से
पार दरिया के उतरने का सलीक़ा सीखे
दौड़ा फिरता है जो दिन रात हवस में पागल
सिर्फ़ दो पल को ठहरने का सलीक़ा सीखे
वो जो अक्सर मेरी आँखों को भिगो जाता है
मेरी यादों से गुज़रने का सलीक़ा सीखे
ख़ुदकुशी भूल के वो काश शहादत सोचे
मरना चाहे है तो मरने का सलीक़ा सीखे
२.
कि जब भी आपसे मिलना हुआ है
वो लमहा ज़ेहन पे ठहरा हुआ है
शिकारी की पकड़ से बच तो आया
परिंदा वो मगर सहमा हुआ है
हुआ महसूस ये तुमसे बिछुड़ कर
ये रिश्ता और भी गहरा हुआ है
ज़माने हो गए उस हादसे को
अभी तक वो मगर टूटा हुआ है
गिरा था छूट कर तुमसे जो इकदिन
वो दर्पण आज तक बिखरा हुआ है
ख़ुदा की इसमें भी है कोई मर्ज़ी
हुआ है जो भी कुछ अच्छा हुआ है
दहल जाती थी जिन ख़बरों से बस्ती
वाही अब रोज़ का क़िस्सा हुआ है
मिलें इंसान भी कुछ, बस्तियों में
बहुत मुश्किल ये अब सपना हुआ है
३.
वो देखें तो कब देखें मस्ती की उड़ानों में
हैं दर्द छुपे कितने बस्ती के मकानों में
इस रूह को मिलता है दोनों में सुकूँ इकसा
मंदिर की घंटियों में मस्जिद की अज़ानों में
ये गीत ही सच्चे हैं जो शाम को उभरे हैं
मजदूरों के होठों से दिन भर की थकानों में
क्या इनमें गरीबों की दुआओं के भी मोती हैं
दौलत जो जमा करके रक्खी है ख़ज़ानों में
होठों पे शिकायत है हर पल ये बुजुर्गों के
जो कुछ था सब अच्छा था बस उनके ज़मानों में
बाज़ार में मिलती हैं चीजें ही नहीं नक़ली
नक़ली का ही रोना है रिश्तों की दुकानों में
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सर्व प्रथम आप सभी को नव वर्ष २०११ की हार्दिक शुभकामनायें. इस नए वर्ष में हिंदी लेखन विश्व भर में और भी समृद्ध हो. और कभी हिंदी के किसी लेखक को नोबल पुरष्कार मिले, यही कामना है. साथ ही, भारत में करोड़ों हिंदी भाषी हीन भावना का त्याग करके हिंदी को शक्ति दें. इस वर्ष आप सभी का लेखन भी नई ऊचाइयां छुए, यही ईश्वर से प्रार्थना है. ये भी प्रार्थना है कि आप सब का स्नेह सतत मिलता रहे...
इस बार नव वर्ष के पहले अंक में एकबार फिर से कुछ गज़लें प्रस्तुत हैं.
१
जब मिलें ज़ख़्म तो भरने का सलीक़ा सीखे
आदमी ग़म से उबरने का सलीक़ा सीखे
हो के मायूस जो बैठा है कहो सूरज से
डूब कर फिर से उभरने का सलीक़ा सीखे
नाव टूटी है उमीदें हैं मगर मांझी से
पार दरिया के उतरने का सलीक़ा सीखे
दौड़ा फिरता है जो दिन रात हवस में पागल
सिर्फ़ दो पल को ठहरने का सलीक़ा सीखे
वो जो अक्सर मेरी आँखों को भिगो जाता है
मेरी यादों से गुज़रने का सलीक़ा सीखे
ख़ुदकुशी भूल के वो काश शहादत सोचे
मरना चाहे है तो मरने का सलीक़ा सीखे
२.
कि जब भी आपसे मिलना हुआ है
वो लमहा ज़ेहन पे ठहरा हुआ है
शिकारी की पकड़ से बच तो आया
परिंदा वो मगर सहमा हुआ है
हुआ महसूस ये तुमसे बिछुड़ कर
ये रिश्ता और भी गहरा हुआ है
ज़माने हो गए उस हादसे को
अभी तक वो मगर टूटा हुआ है
गिरा था छूट कर तुमसे जो इकदिन
वो दर्पण आज तक बिखरा हुआ है
ख़ुदा की इसमें भी है कोई मर्ज़ी
हुआ है जो भी कुछ अच्छा हुआ है
दहल जाती थी जिन ख़बरों से बस्ती
वाही अब रोज़ का क़िस्सा हुआ है
मिलें इंसान भी कुछ, बस्तियों में
बहुत मुश्किल ये अब सपना हुआ है
३.
वो देखें तो कब देखें मस्ती की उड़ानों में
हैं दर्द छुपे कितने बस्ती के मकानों में
इस रूह को मिलता है दोनों में सुकूँ इकसा
मंदिर की घंटियों में मस्जिद की अज़ानों में
ये गीत ही सच्चे हैं जो शाम को उभरे हैं
मजदूरों के होठों से दिन भर की थकानों में
क्या इनमें गरीबों की दुआओं के भी मोती हैं
दौलत जो जमा करके रक्खी है ख़ज़ानों में
होठों पे शिकायत है हर पल ये बुजुर्गों के
जो कुछ था सब अच्छा था बस उनके ज़मानों में
बाज़ार में मिलती हैं चीजें ही नहीं नक़ली
नक़ली का ही रोना है रिश्तों की दुकानों में
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12 comments:
har gazal ek se badhkar ek.
Behtareen gazalein .. bahut hi sundar
तीनों ही गज़लें अच्छी हैं, पर ग़ज़ल सं.२ अभिव्यक्ति एवं शिल्प दोनों लिहाज़ से बेहतर है| साधुवाद|
- अरुण मिश्र.
बहुत सुन्दर ग़ज़लों के लिए वधाई। अपनी ग़ज़लों की वीडिओ क्लिप भी ब्लाग पर दे सकें तो बहुत अच्छा रहेगा।
-डा० जगदीश व्योम
gazal ne naye varsh ko gazal sa bana diya.... shubhkamnayen
भाई वाजपेयी जी.
नव वर्ष पर आपने जो हमें नायाब गजलों का तोहफा दिया है उसके लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया...नव वर्ष की इस से बेहतर भेंट और क्या हो सकती है...
दौड़ा फिरता है जो दिन रात हवस में पागल
सिर्फ़ दो पल को ठहरने का सलीक़ा सीखे
***
हुआ महसूस ये तुमसे बिछुड़ कर
ये रिश्ता और भी गहरा हुआ है
***
इस रूह को मिलता है दोनों में सुकूँ इकसा
मंदिर की घंटियों में मस्जिद की अज़ानों में
जैसे अनमोल शेरों से सजी ये ग़ज़लें आपकी विलक्षण प्रतिभा को दर्शाती हैं. मेरी दाद कबूल करें.
नीरज
dhanyavaad aapkee rachnaaen to vaakaee bahut umda kism kee hain jo print media men chhae kaviyon ke star ko khulee chunautee de rahee hain, yah blaageey sahitya kee uccchtam gazlon me ginee ja saktee hain. Mujhe aap kee yah line bahut mutassir kar gaee--ख़ुदकुशी भूल के वो काश शहादत सोचे
मरना चाहे है तो मरने का सलीक़ा सीखे
vinay ojha snehil, Kavyamrit.blogspot.com
1st and 2nd are too good! Very expressive!
वाजपेई जी
इतना सुन्दर ब्लॉग है और उससे भी ज्यादा आपकी गज़लें जो आपने एक बेहद खूबसूरत अंदाज़ में कहीं हैं, कितना सच है
'दौड़ा फिरता है जो दिन रात हवस में पागल
सिर्फ़ दो पल को ठहरने का सलीक़ा सीखे'
बस दो पल ही नहीं मिल पाते, बहुत दिनों से मन में था कि आपकी ग़ज़लों के सन्दर्भ में कुछ लिखूं, पुनः एक बार बधाई
रेखा राजवंशी
सिडनी, ऑस्ट्रेलिया
प्रणाम !
नव वर्ष कि आप को भी बहुत बहुत बधाई ! आप निरंतर साहित्य कि यूही सेवा करते रहे ये हम कामना करते है !
तीनो गज़ले उम्दा लगी , तीनो में एक आशा एक विश्वास लिए दिखी .. तीसरी में कही लगा कि कोई मन में कसक है अभी किसी उम्मीद कि प्रतीक्षा में . सुंदर शेर लगे . शुक्रिया !
सादर
itnee sundar v achchhi gajlon ke liye badhai in gajlo ne vastav men man ko chhoo liya hai.
nice........
but i like the first one
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