Tuesday, November 30, 2010

मुक्तक

मित्रो, आपने मेरी कविताओं को सराहा और उन पर अपनी बहुमूल्य टिप्पणियाँ दीं, इसके लिए मैं आप सबका हृदय से आभारी हूँ। ग़ज़लों और छन्दमुक्त कविताओं के बाद इस बार मैं अपने कुछ मुक्तक आपसे सांझा करना चाहता हूँ। इन पर आपकी टिप्पणियों की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।

॥एक॥
हम तो अभिशापों से वरदान जुटा लेते हैं
ग़म से भी ख़ुशियों के सामान जुटा लेते हैं
वे जो मनहूस हैं, रो-रो के वो जीते होंगे
हम तो आँसू से भी मुस्कान जुटा लेते हैं

॥दो॥
न कोई बोल जब पाए तो कविता बोल देती है
अँधेरों में, ये खिड़की रौशनी की, खोल देती है
ये ताकत भी है कविता में, अगर सचमुच वो कविता है
वो मरते आदमी में ज़िन्दगी-सी घोल देती है

॥तीन॥
वक़्त आएगा तो कांटों से चुभन मांगेंगे
वक़्त आएगा तो शोलों से तपन मांगेंगे
तुमको देखे तो कोई आँख उठाकर ऐ वतन
हम तो हँसते हुए मरघट से क़फ़न मांगेंगे

॥चार॥
कभी तो अपने सवालों का जवाब आएगा
कभी तो अपने भी गुलशन पे शबाब आएगा
बढ़ती जाती है घुटन जितनी भी बढ़ जाने दो
इसी घुटन से नया इन्क़लाब आएगा

॥पाँच॥
ये घड़ी वक़्त की बस चलती चली जाती है
औ’ इरादों की घड़ी टलती चली जाती है
इक तरफ़ बोझ है अरमानों का सर पे अनगिन
और ये उम्र… कि बस ढलती चली जाती है

॥छह॥
पंख फैलाएंगे परवाज़ करेंगे हम लोग
इक नया जीने का अंदाज़ करेंगे हम लोग
जो ग़लत होता रहा, धूल गिरा के उस पर
इक नये दौर का आग़ाज़ करेंगे हम लोग

॥सात॥
दर्द ख़ुद झेल के ख़ुशियों की फ़सल देते हैं
जिनमें खतरे हों, उन्हीं राहों पे चल देते हैं
जिनकी सोचों में है, औरों की भलाई हर पल
ऐसे कुछ लोग ही, दुनिया को बदल देते हैं
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Sunday, October 31, 2010

कविताएँ

मित्रो, आपने ब्लॉग की दुनिया में मेरे ब्लॉग का जिस प्रकार से स्वागत किया, उसके लिए मैं आप सबका हृदय से आभारी हूँ। पिछले दिनों मेरी यू.के. यात्रा एवं राष्ट्र्मंडल खेलों आदि के चलते मेरे इस ब्लॉग की दूसरी पोस्टिंग में काफ़ी विलम्ब हुआ, इसके लिए मैं क्षमा-प्रार्थी हूँ। भविष्य में अपने इस ब्लॉग की निरंतरता बनाए रखने का भरसक प्रयास करूँगा।

आप सबकी शुभकामनाओं से मुझे लंदन में अंतर्राष्ट्रीय वातायन कविता सम्मान मिला और मेरी कविताओं पर केन्द्रित एक शाम का आयोजन हुआ। ये भी खुशी की बात है कि यू.के. के लगभग एक दर्जन शहरों में कवि-सम्मेलनों का आयोजन हुआ और हिंदी अंतर्राष्ट्रीय-क्षितिज पर अपने पंख निरंतर फैलाती जा रही है।

मैं अपनी कुछ छोटी कविताओं के साथ इस बार आपसे रू-ब-रू हूँ। आशा करता हूँ कि ये आपको पसन्द आएंगी और आप अपनी राय से मुझे अवगत कराएंगे।
आप सभी को ज्योति-पर्व दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ…


॥एक॥
मेरी सबसे बड़ी चिंता
अपनी बेटी के भविष्य को लेकर है
मेरा बेटा तो हमेशा खेलता है
पिस्तौल, स्टेनगन, मशीनगन से
रचाता है युद्ध, करता है बमवर्षा
लेकिन अपनी बेटी का क्या करूँ
वो हमेशा गुड़ियों से खेलती है…

॥दो॥
कमरे में सजी
तुम्हारी बड़ी-सी तस्वीर से कहीं ज्यादा
परेशान करती हैं !
बाथरूम में चिपकी
तुम्हारी छोटी-छोटी बिन्दियाँ…

॥तीन॥
उन सारी प्रार्थनाओं का मतलब क्या है
जिनके होते हुए भी
वही सब होता रहे
जिसके न होने के लिए की जाती हैं प्रार्थनाएँ
मैं एक कोशिश और करता हूँ
ओ प्रार्थनाएँ सुनने वालो
और करता हूँ प्रार्थना
कि प्रार्थनाएँ कभी बेकार न हों…

॥चार॥
अच्छा-भला आदमी था
सीधा-सादा, बाल-बच्चेदार, घर-गृहस्थ
कुछ नारे उसे हांक कर भीड़ में ले गए
और उसे भी क्या सूझी
कि अचानक आदमी से भीड़ में बदल गया
और भीड़ का सैलाब थमने के बाद
उसने पाया अपने आप को
एक अस्पताल के मुर्दाघर में
अपने पहचाने जाने का इंतज़ार करते हुए…

॥पाँच॥
कीड़े ! गंदगी की तलाश में
चौबीसों घंटे भटकते हैं जी-जान से
वे हर तरफ़ सूंघते हैं गंदगी
वे जाने कहाँ-कहाँ से ढूँढ़-ढूँढ़ कर लाते हैं गंदगी
उनमें होड़ है
कि कौन कितनी बड़ी गंदगी बटोर कर लाए
और कितनी चमक के साथ
परोस दे पूरे देश को
कुछ ढूँढ़ते हैं रंगीन गंदगी
कुछ ढूँढ़ते हैं संगीन गंदगी
उनका मानना है कि हर इंसान में एक कीड़ा बसता है
और इस कीड़े को जतन से पाला जाए
तो अच्छा-भला इंसान भुला सकता है अपनी इंसानियत
अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बताती हैं
कि कीड़े अपनी कोशिशों में कामयाब होने लगे हैं…
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Sunday, August 15, 2010

ग़ज़ल









मित्रों, स्वाधीनता की 63वीं वर्षगांठ के शुभ-अवसर पर मैं ब्लॉग की दुनिया में अपना पहला कदम रख रहा हूँ। चाहता हूँ कि अपने इस ब्लॉग के जरिये मैं समय-समय पर अपनी रचनाधर्मिता को आप सबसे शेयर करता रहूँ। मेरी काव्य-यात्रा में गीत और ग़ज़ल मेरे सृजन का प्रमुख हिस्सा रही हैं। ब्लॉग-यात्रा के इस पहले पायदान पर स्वतंत्रता-दिवस की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत हैं मेरी पाँच ग़ज़लें…



॥एक॥

पूछा था रात मैंने ये पागल चकोर से
पैगाम कोई आया है चन्दा की ओर से

बरसों हुए मिला था अचानक कभी कहीं
अब तक बंधा हुआ है जो यादों की डोर से

मुझको तो सिर्फ उसकी ख़ामोशी का था पता
हैरां हूँ पास आ के समंदर के शोर से

मैं चौंकता हूँ जब भी नज़र आए है कोई
इस दौर में भी हंसते हुए ज़ोर ज़ोर से

ये क्या हुआ है उम्र के अंतिम पड़ाव पर
माज़ी को देखता हूँ मैं बचपन के छोर से


॥दो॥

टूटते लोगों को उम्मीदें नयी देते हुए
लोग हैं कुछ, ज़िंदगी को, ज़िंदगी देते हुए

नूर की बारिश में, जैसे, भीगता जाता है मन
एक पल को भी, किसी को, इक ख़ुशी देते हुए

याद बरबस आ गई माँ, मैंने देखा जब कभी
मोमबत्ती को पिघल कर, रोशनी देते हुए

आज के इस दौर में मिलते है ऐसे भी चिराग़
रोशनी देने के बदले, तीरगी देते हुए

इक अमावस पर ये मैंने रात के मुँह से सुना
चाँद बूढ़ा हो चला है, चाँदनी देते हुए


॥तीन॥

इतनी किसी की ज़िंदगी ग़म से भरी न हो
वो मौत माँगता हो, मगर मौत भी न हो

ख़ंजर के बदले फूल लिए आज वो मिला
डरता हूं कहीं चाल ये उसकी नई न हो

बच्चों को मुफ़लिसी में, ज़हर माँ ने दे दिया
अख़बार में अब ऐसी ख़बर फिर छपी न हो

ऐसी शमा जलाने का क्या फायदा मिला
जो जल रही हो और कहीं रोशनी न हो

हर पल, ये सोच सोच के नेकी किए रहो
जो सांस ले रहे हो, कहीं आख़िरी न हो

क्यूँ ज़िंदगी को ग़र्क किए हो जुनून में
रक्खो जुनून उतना कि वो ख़ुदकुशी न हो

ऐसे में क्या समुद्र के तट का मज़ा रहा
हो रात, साथ वो हों, मगर चाँदनी न हो

एहसास जो मरते गए, दुनिया में यूं न हो
दो पांव के सब जानवर हों, आदमी न हो

इस बार जब भी धरती पे आना ए कृष्ण जी,
दो चक्र ले के आना, भले बाँसुरी न हो


॥चार॥

जब भी वीरान सा, ख्वाबों का नगर लगता है
कितना दुश्वार, ये जीवन का सफर लगता है

इक ज़माने में, बुरा होगा फ़रेबी होना
आज के दौर में, ये एक हुनर लगता है

कैसा चेहरा ये दिया, आदमी को शहरों ने
कोई हमदर्दी भी जतलाए, तो डर लगता है

जिसकी हर ईंट, जुटायी थी लहू से अपने
कितना बेगाना, उसे अपना वो घर लगता है

भोलापन तुझमें, वही ढूँढ़ रही हैं नज़रें
अब मगर तुझपे ज़माने का असर लगता है

हम तो हर आंसू को शब्दों में बदल देते हैं
बस यही लोगों को, ग़ज़लों का हुनर लगता है

यूं कड़ी धूप में लिपटाया छांव से मुझको
माँ के आँचल सा ये अनजान शजर लगता है


॥पाँच॥

न जाने चाँद पूनम का, ये क्या जादू चलाता है
कि पागल हो रहीं लहरें, समुन्दर कसमसाता है

हमारी हर कहानी में, तुम्हारा नाम आता है
ये सबको कैसे समझाएं कि तुमसे कैसा नाता है

ज़रा सी परवरिश भी चाहिए हर एक रिश्ते को
अगर सींचा नहीं जाए तो पौधा सूख जाता है

ये मेरे और ग़म के बीच में किस्सा है बरसों से
मैं उसको आज़माता हूँ वो मुझको आज़माता है

जिसे चींटी से लेकर चाँद सूरज सब सिखाया था
वही बेटा बड़ा होकर सबक़ मुझको पढ़ाता है

नहीं है बेइमानी गर ये बादल की तो फिर क्या है
मरूस्थल छोड़कर जाने कहाँ पानी गिराता है

पता अनजान के किरदार का भी पल में चलता है
कि लहजा गुफ्तगू का भेद सारे खोल जाता है

खुदा का खेल ये अब तक नहीं समझे कि वो हमको
बनाकर क्यों मिटाता है, मिटाकर क्यूं बनाता है

वो बरसों बाद आकर कह गया फिर जल्दी आने का
पता माँ बाप को भी है, वो कितनी जल्दी आता है

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