Sunday, November 13, 2011

ग़ज़ल




प्रिय मित्रो, पिछ्ली पोस्ट में छ्पी ग़ज़लों पर आपकी प्रतिक्रियायों के लिए आभार… इस बार दो ताज़ा ग़ज़लें प्रस्तुत हैं। अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें।
-लक्ष्मी शंकर वाजपेयी


दो ग़ज़लें
1



ज़हर से जैसे वो अमृत निकाल देता है..
दरख़्त धूप को साए में ढाल देता है

अवाम आँखे बिछाता है कि हल होंगे सवाल
अजब निज़ाम है उलटे सवाल देता है

हमेशा ख़ुद पे लगी तोहमतें छुपाने को
वो अपने रौब का सिक्का उछाल देता है .

ख़ुद ही फँस जाते हैं आ आ के परिंदे उसमे
इतने रंगीन वो रेशम के जाल देता है

उसी को सौंप दो सारी मुसीबतें अपनी
वो एक लम्हे में सब कुछ संभाल देता है

वो ज़ुल्म करते रहें हम कोई गिला न करें
ये एहतियात तो मुश्किल में डाल देता है

उसी को मिलते हैं मोती भी यक़ीनन इक दिन
जो गहरे जा के समंदर खंगाल देता है

जो अपने वक़्त में नफ़रत से मार डाले गए
उन्ही की आज ज़माना मिसाल देता है

2



भीगे थे साथ साथ कभी जिस फुहार में
ये उम्र कट रही है उसी के खुमार में

तकते हैं खड़े दूर से सैलाब के मारे
मग़रूर नदी आयेगी कब तक उतार में

मजबूर थी बिचारी दिहाड़ी की वजह से
आई तड़पता छोड़ के बच्चा बुखार में

ये साज़ भी इंसानी हुनर की मिसाल हैं
संगीत उतर आता है लोहे के तार में

अपराध पल रहा है सियासत की गोद में
बच्चा बिगड़ने लगता है ज्यादा दुलार में

फ़रियाद अगर रब ने तुम्हारी नहीं सुनी
कोई कमी तो होगी तुम्हारी पुकार में
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