Sunday, August 15, 2010

ग़ज़ल









मित्रों, स्वाधीनता की 63वीं वर्षगांठ के शुभ-अवसर पर मैं ब्लॉग की दुनिया में अपना पहला कदम रख रहा हूँ। चाहता हूँ कि अपने इस ब्लॉग के जरिये मैं समय-समय पर अपनी रचनाधर्मिता को आप सबसे शेयर करता रहूँ। मेरी काव्य-यात्रा में गीत और ग़ज़ल मेरे सृजन का प्रमुख हिस्सा रही हैं। ब्लॉग-यात्रा के इस पहले पायदान पर स्वतंत्रता-दिवस की शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत हैं मेरी पाँच ग़ज़लें…



॥एक॥

पूछा था रात मैंने ये पागल चकोर से
पैगाम कोई आया है चन्दा की ओर से

बरसों हुए मिला था अचानक कभी कहीं
अब तक बंधा हुआ है जो यादों की डोर से

मुझको तो सिर्फ उसकी ख़ामोशी का था पता
हैरां हूँ पास आ के समंदर के शोर से

मैं चौंकता हूँ जब भी नज़र आए है कोई
इस दौर में भी हंसते हुए ज़ोर ज़ोर से

ये क्या हुआ है उम्र के अंतिम पड़ाव पर
माज़ी को देखता हूँ मैं बचपन के छोर से


॥दो॥

टूटते लोगों को उम्मीदें नयी देते हुए
लोग हैं कुछ, ज़िंदगी को, ज़िंदगी देते हुए

नूर की बारिश में, जैसे, भीगता जाता है मन
एक पल को भी, किसी को, इक ख़ुशी देते हुए

याद बरबस आ गई माँ, मैंने देखा जब कभी
मोमबत्ती को पिघल कर, रोशनी देते हुए

आज के इस दौर में मिलते है ऐसे भी चिराग़
रोशनी देने के बदले, तीरगी देते हुए

इक अमावस पर ये मैंने रात के मुँह से सुना
चाँद बूढ़ा हो चला है, चाँदनी देते हुए


॥तीन॥

इतनी किसी की ज़िंदगी ग़म से भरी न हो
वो मौत माँगता हो, मगर मौत भी न हो

ख़ंजर के बदले फूल लिए आज वो मिला
डरता हूं कहीं चाल ये उसकी नई न हो

बच्चों को मुफ़लिसी में, ज़हर माँ ने दे दिया
अख़बार में अब ऐसी ख़बर फिर छपी न हो

ऐसी शमा जलाने का क्या फायदा मिला
जो जल रही हो और कहीं रोशनी न हो

हर पल, ये सोच सोच के नेकी किए रहो
जो सांस ले रहे हो, कहीं आख़िरी न हो

क्यूँ ज़िंदगी को ग़र्क किए हो जुनून में
रक्खो जुनून उतना कि वो ख़ुदकुशी न हो

ऐसे में क्या समुद्र के तट का मज़ा रहा
हो रात, साथ वो हों, मगर चाँदनी न हो

एहसास जो मरते गए, दुनिया में यूं न हो
दो पांव के सब जानवर हों, आदमी न हो

इस बार जब भी धरती पे आना ए कृष्ण जी,
दो चक्र ले के आना, भले बाँसुरी न हो


॥चार॥

जब भी वीरान सा, ख्वाबों का नगर लगता है
कितना दुश्वार, ये जीवन का सफर लगता है

इक ज़माने में, बुरा होगा फ़रेबी होना
आज के दौर में, ये एक हुनर लगता है

कैसा चेहरा ये दिया, आदमी को शहरों ने
कोई हमदर्दी भी जतलाए, तो डर लगता है

जिसकी हर ईंट, जुटायी थी लहू से अपने
कितना बेगाना, उसे अपना वो घर लगता है

भोलापन तुझमें, वही ढूँढ़ रही हैं नज़रें
अब मगर तुझपे ज़माने का असर लगता है

हम तो हर आंसू को शब्दों में बदल देते हैं
बस यही लोगों को, ग़ज़लों का हुनर लगता है

यूं कड़ी धूप में लिपटाया छांव से मुझको
माँ के आँचल सा ये अनजान शजर लगता है


॥पाँच॥

न जाने चाँद पूनम का, ये क्या जादू चलाता है
कि पागल हो रहीं लहरें, समुन्दर कसमसाता है

हमारी हर कहानी में, तुम्हारा नाम आता है
ये सबको कैसे समझाएं कि तुमसे कैसा नाता है

ज़रा सी परवरिश भी चाहिए हर एक रिश्ते को
अगर सींचा नहीं जाए तो पौधा सूख जाता है

ये मेरे और ग़म के बीच में किस्सा है बरसों से
मैं उसको आज़माता हूँ वो मुझको आज़माता है

जिसे चींटी से लेकर चाँद सूरज सब सिखाया था
वही बेटा बड़ा होकर सबक़ मुझको पढ़ाता है

नहीं है बेइमानी गर ये बादल की तो फिर क्या है
मरूस्थल छोड़कर जाने कहाँ पानी गिराता है

पता अनजान के किरदार का भी पल में चलता है
कि लहजा गुफ्तगू का भेद सारे खोल जाता है

खुदा का खेल ये अब तक नहीं समझे कि वो हमको
बनाकर क्यों मिटाता है, मिटाकर क्यूं बनाता है

वो बरसों बाद आकर कह गया फिर जल्दी आने का
पता माँ बाप को भी है, वो कितनी जल्दी आता है

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