Thursday, January 6, 2011

ग़ज़ल



मित्रो
सर्व प्रथम आप सभी को नव वर्ष २०११ की हार्दिक शुभकामनायें. इस नए वर्ष में हिंदी लेखन विश्व भर में और भी समृद्ध हो. और कभी हिंदी के किसी लेखक को नोबल पुरष्कार मिले, यही कामना है. साथ ही, भारत में करोड़ों हिंदी भाषी हीन भावना का त्याग करके हिंदी को शक्ति दें. इस वर्ष आप सभी का लेखन भी नई ऊचाइयां छुए, यही ईश्वर से प्रार्थना है. ये भी प्रार्थना है कि आप सब का स्नेह सतत मिलता रहे...

इस बार नव वर्ष के पहले अंक में एकबार फिर से कुछ गज़लें प्रस्तुत हैं.


जब मिलें ज़ख़्म तो भरने का सलीक़ा सीखे
आदमी ग़म से उबरने का सलीक़ा सीखे

हो के मायूस जो बैठा है कहो सूरज से
डूब कर फिर से उभरने का सलीक़ा सीखे

नाव टूटी है उमीदें हैं मगर मांझी से
पार दरिया के उतरने का सलीक़ा सीखे

दौड़ा फिरता है जो दिन रात हवस में पागल
सिर्फ़ दो पल को ठहरने का सलीक़ा सीखे

वो जो अक्सर मेरी आँखों को भिगो जाता है
मेरी यादों से गुज़रने का सलीक़ा सीखे

ख़ुदकुशी भूल के वो काश शहादत सोचे
मरना चाहे है तो मरने का सलीक़ा सीखे

२.
कि जब भी आपसे मिलना हुआ है
वो लमहा ज़ेहन पे ठहरा हुआ है

शिकारी की पकड़ से बच तो आया
परिंदा वो मगर सहमा हुआ है

हुआ महसूस ये तुमसे बिछुड़ कर
ये रिश्ता और भी गहरा हुआ है

ज़माने हो गए उस हादसे को
अभी तक वो मगर टूटा हुआ है

गिरा था छूट कर तुमसे जो इकदिन
वो दर्पण आज तक बिखरा हुआ है

ख़ुदा की इसमें भी है कोई मर्ज़ी
हुआ है जो भी कुछ अच्छा हुआ है

दहल जाती थी जिन ख़बरों से बस्ती
वाही अब रोज़ का क़िस्सा हुआ है

मिलें इंसान भी कुछ, बस्तियों में
बहुत मुश्किल ये अब सपना हुआ है

३.
वो देखें तो कब देखें मस्ती की उड़ानों में
हैं दर्द छुपे कितने बस्ती के मकानों में

इस रूह को मिलता है दोनों में सुकूँ इकसा
मंदिर की घंटियों में मस्जिद की अज़ानों में

ये गीत ही सच्चे हैं जो शाम को उभरे हैं
मजदूरों के होठों से दिन भर की थकानों में

क्या इनमें गरीबों की दुआओं के भी मोती हैं
दौलत जो जमा करके रक्खी है ख़ज़ानों में

होठों पे शिकायत है हर पल ये बुजुर्गों के
जो कुछ था सब अच्छा था बस उनके ज़मानों में

बाज़ार में मिलती हैं चीजें ही नहीं नक़ली
नक़ली का ही रोना है रिश्तों की दुकानों में
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